Friday, July 30, 2010

परवीन शाकिर

तेरी ख़ुश्बू का पता करती है
मुझ पे एहसान हवा करती है

शब की तन्हाई में अब तो अक्सर
गुफ़्तगू तुझ से रहा करती है
...
दिल को उस राह पे चलना ही नहीं
जो मुझे तुझ से जुदा करती है

ज़िन्दगी मेरी थी लेकिन अब तो
तेरे कहने में रहा करती है

उस ने देखा ही नहीं वर्ना ये आँख
दिल का एहवाल कहा करती है

बेनियाज़-ए-काफ़-ए-दरिया अन्गुश्त
रेत पर नाम लिखा करती है

शाम पड़ते ही किसी शख़्स की याद
कूचा-ए-जाँ में सदा करती है

मुझ से भी उस का है वैसा ही सुलूक
हाल जो तेरा अन करती है

दुख हुआ करता है कुछ और बयाँ
बात कुछ और हुआ करती है

अब्र बरसे तो इनायत उस की
शाख़ तो सिर्फ़ दुआ करती है

मसला जब भी उठा चिराग़ों का
फ़ैसला सिर्फ़ हवा करती है

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